बेंगलुरु
केंद्र सरकार पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) पर पांच साल के लिए बैन लगा चुकी है। सरकार द्वारा किए जाने वाले इस ऐक्शन के बाद कर्नाटक भाजपा में दरार आ गई है। जानकारी के अनुसार, कर्नाटक में भाजपा के भीतर नेताओं का एक समूह पीएफआई पर प्रतिबंध को चुनावी मुद्दा बनाकर आगामी विधानसभा चुनावों में फायदा उठाने की पार्टी की रणनीति पर सवाल उठा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता और विधायक ने कहा कि पार्टी के भीतर एक चिंता है कि पार्टी द्वारा उठाए गए मुद्दों का प्रभाव कर्नाटक में ही काफी जगहों पर अपर्याप्त है। वहीं, दूसरी ओर पीएफआई पर बैन लगना कर्नाटक में एसडीपीआई के लिए बड़ा मौका लेकर आया है।
एचटी से बात करते हुए नाम न लेने की शर्त पर कर्नाटक भाजपा नेता ने कहा, “चाहे वह हिजाब हो, धर्मांतरण विरोधी विधेयक या यहां तक कि पीएफआई पर प्रतिबंध को लेकर पार्टी द्वारा लिया गया स्टैंड … ये मुद्दे ज्यादातर तटीय कर्नाटक हिस्सा हो सकते हैं। जबकि दक्षिण कर्नाटक के जिलों में अधिक ध्यान देने की जरूरत है, जहां हमारे पास अभी भी जीत दर्ज करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। इसलिए, यदि आप मुझसे प्रतिबंध से हुए राजनीतिक लाभ के बारे में पूछते हैं, तो मैं कहूंगा कि यह काफी सीमित है।” सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) पर अपने मूल संगठन पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने के बाद सरकार के फैसले ने अटकलों को हवा दी है कि एसडीपीआई आगामी विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है।
पीएफआई पर प्रतिबंध से एसडीपीआई मजबूत होगा!
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. मुजफ्फर असदी ने कहा कि पीएफआई पर प्रतिबंध अल्पसंख्यक समुदाय को एकजुट कर सकता है। “पीएफआई पर प्रतिबंध एसडीपीआई को मजबूत कर सकता है। मुझे लगता है कि अब वह 2023 के विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की सोच रही होगी। अल्पसंख्यक समुदाय यह मान सकता है कि उनकी आवाज को दबाया जा रहा है और वे फिर से संगठित हो सकते हैं। बेशक, कांग्रेस की इसमें सबसे बड़ी हार होगी।”
हालांकि, कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने इससे असहमति जताई। उनके अनुसार, PFI पर प्रतिबंध के लिए देश में मुस्लिम पार्टियों का समर्थन इस बात का संकेत है कि समुदाय सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन नहीं करता है। कहा, “इस प्रतिबंध के परिणामस्वरूप लोगों को यह एहसास होगा कि भाजपा और आरएसएस को सत्ता से हटाना सबसे महत्वपूर्ण है। लोगों ने महसूस किया है कि भाजपा इन संगठनों का इस्तेमाल मुस्लिम वोटों को बांटने के लिए कर रही है। जो समुदाय पहले से ही सरकार की सांप्रदायिक नीतियों से निराश है, वह आगामी चुनावों में तटीय क्षेत्रों में हमारा समर्थन करेगा। हम समाधान हैं।”
2018 में क्या हुआ था
पुराने घटनाक्रम पर गौर करें तो 2018 के विधानसभा चुनावों में, उत्तर कन्नड़ जिले की छह सीटों में से, भाजपा ने चार पर जीत हासिल की थी और एक साल बाद राजनीतिक संकट के बाद शिवराम हेब्बार कांग्रेस से पार्टी में शामिल हो गए। उडुपी जिले में, भाजपा ने सभी पांच सीटों पर जीत हासिल की और दक्षिण कन्नड़ में, आठ में से सात सीटें जीतीं। कांग्रेस को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था।
हिन्दुत्व की लहर में कांग्रेस की पकड़ ढीली
हालांकि, 2013 के विधानसभा चुनावों में परिणाम काफी अलग थे। कांग्रेस ने उडुपी में तीन, दक्षिण कन्नड़ में सात और उत्तर कन्नड़ में तीन सीटें जीतीं थी। 2018 में हिंदुत्व की लहर के दौरान खोई हुई कुछ सीटों को वापस लेकर कांग्रेस आगामी चुनावों में इस क्षेत्र में अपने प्रदर्शन में सुधार की उम्मीद कर रही है।